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छंद किसे कहते है ? परिभाषा, प्रकार, भेद और उदाहरण in Hindi with Examples

छंद का सर्वप्रथम उल्लेख ‘ऋग्वेद’ में मिलता है।

परिभाषा – साहित्य में जब कोई पद्य रचना यति, गति, संगीत, लय, वर्णो की संख्या, मात्रा, गणना आदि के विशेष नियमो से युक्त होती है तो उसे छंद कहा जाता है। 
छंदसूत्र (आचार्य पिंगल द्वारा रचित ) में छंद को शास्त्र का ‘आदिग्रन्थ’ माना जाता है। 

छंद के भेद –
‘वर्ण’ एवं ‘मात्रा’ के आधार पर छंद के दो भेद होते है –

1. वार्णिक छंद 
2. मात्रिक छंद 

1. वार्णिक छंद – वह छंद जो वर्णो की रचना के आधार पर रचा गया है, वार्णिक छंद कहलाता है।
वार्णिक छंदो के निम्न उपभेद होते है –

साधारण छंद – वह छंद जिसमे वर्णो की संख्या 1 से 26 तक हो अथवा मात्राओं की संख्या 1 से 32 तक हो, साधारण छंद कहलाता है। 

दण्डक छंद – वह छंद जिसमे वर्णो की संख्या 26  से अधिक हो अथवा मात्राओं की संख्या 32 से ज्यादा हो, दण्डक छंद कहलाता है। 

दण्डक छंद के भी निम्न उपभेद होते है-

घनाक्षरी छंद- इसमें वर्णो की संख्या 31 होती है तथा पन्द्रहवें एवं सोहलवें वर्ण पर यति होती है तथा अंत में एक लघु एवं एक गुरु वर्ण आता है। 

रूपघनाक्षरी छंद – इसमें वर्णो की संख्या 32 होती है तथा सोहलवें-सोहलवें वर्ण या प्रत्येक आठवें वर्ण पर यति होती है। 

देवघनाक्षरी छंद – इसमें वर्णो की संख्या 33 होती है तथा क्रमशः आठ-आठ एवं नौ वर्ण पर यति होती है। अंतिम दो वर्ण लघु होते है। 

2. मात्रिक छंद – वह छंद जो मात्राओं की गणना के आधार पर रचा गया हो, मात्रिक छंद कहलाता है।

उपर्युक्त दोनों छंदो (मात्रिक एवं वार्णिक ) को निम्न तीन उपभेदो में और बांटा गया जाता है-
(i) सम  छंद
(ii) अर्द्धसम छंद 
(iii) विषम छंद 

(i) सम छंद – वह छंद जिसमे चारो चरणों की मात्राए या वर्ण सामान हो, समछंद  कहलाता है। 

(ii) अर्द्धसम छंद – वह छंद जिसमे पहले और तीसरे तथा दूसरे और चौथे चरणों की मात्राएँ या वर्ण समान हो, अर्द्धसम छंद कहलाता है। 

(iii) विषम छंद – वह छंद जिसमे चार से अधिक चरण हो तथा वे एक समान न हो, विषम छंद कहलाता है। जैसे – छप्पय ,कुण्डलिया आदि। 

छंदशास्त्र में प्रचलित शब्दों /पदों का वर्गीकरण-

लघु और गुरु – छंद शास्त्र में ह्रस्व अक्षर को ‘लघु’ कहते है, जिसे ‘।’ से व्यक्त किया जाता है और दीर्घ अक्षर को ‘गुरु’ कहा जाता है, जिसे ‘ ‘ चिह्न से व्यक्त किया जाता है।    

यति –  जब पद्य का वाचन करते समय जहाँ पर विराम ( विश्राम ) लिया जाता है ,उसे यति कहा जाता है। 

गण- तीन वर्णो के समूह को गण कहा जाता है। 

गण आठ होते है। 
गणो के रूप एवं लक्षणों को समझने के लिए निम्न सूत्र का सहारा लिया जाता है –
‘यमाताराजभानसलगा
‘यगण मगण तगण रगण जगण भगण नगण सगण लघु गुरु’ 
► यगण
► मगण
► तगण
► रगण
► जगण
► भगण
► नगण
► सगण
► लघु
► गुरु 

पाद या चरण – पाद या चरण का अर्थ होता है-छंद का चौथा भाग। प्रत्येक छंद में चार चरण होते है। प्रथम एवं तृतीय चरण को ‘विषम चरण’ तथा द्वितीय एवं चतुर्थ  चरण को ‘सम चरण’ कहते है। 

मात्रा एवं वर्ण – ह्रस्व (लघु ) स्वर ‘अ’ ,’इ’ ,`उ’ ,’ऋ ‘ वाले वर्णो की एक मात्रा तथा दीर्घ ( गुरु ) स्वर ‘आ’ ,’ई’ ,’ऊ’ ,’ए’ ,’ऐ’ ,’ओ’ ,’औ ‘ वाले वर्णो की दो मात्राएँ होती है। 

जैसे- 
‘नविन’ में तीन वर्ण ( न, वि ,न ) है तथा (     ) तीन मात्राएँ है।

निम्न नियमो से मात्रा का निर्धारण किया जाता है –
► चार (‘अ’ , ‘इ’ , ‘उ ‘ , ‘ऋ ‘) ह्रस्व (लघु ) वर्ण होते है ,जिनकी एक मात्रा  मानी जाती है। 
► सात ( ‘आ’ ,’ई ‘ , ‘ऊ’, ‘ए’ , ‘ऐ’ , ‘ओ’ ,’औ’ ) दीर्घ (गुरु ) वर्ण होते है , जिनकी दो मात्रा मानी जाती है। 

► कोई वर्ण यदि  विसर्ग से युक्त हो तो उसे गुरु वर्ण माना जाता है अर्थात दो मात्रा होती है। जैसे – ‘अतः’  में ‘तः ‘ विसर्ग से युक्त होने के कारण गुरु माना जाता है। 

► यदि किसी लघु वर्ण पर ‘अनुस्वार’ लगा हुआ हो तो उसे दीर्घ माना जाता है। जैसे- ‘अंश’ में ‘अ’ पर अनुस्वार होने के कारण इसे लघु वर्ण न मानकर गुरु (दो वर्ण) माना जाता है। 

► यदि किसी वर्ण पर चंद्र बिंदु है तो उसे लघु माना जाता है।  जैसे – ‘अँश’ में ‘अ’ पर चंद्र बिंदु होने के कारण इसे लघु वर्ण (एक मात्रा ) माना जाता है। 

► किसी संयुक्त / हलन्त व्यंजन से पूर्व का वर्ण गुरु माना जाता है। जैसे – ‘अन्त ‘इसमें संयुक्त व्यंजन ‘न्त’ का प्रयोग हुआ है ,अतः अर्द्ध  वर्ण ‘न्त ‘ से पूर्व लिखा हुआ वर्ण ‘अ’ गुरु माना जायेगा।

छंद के कुछ प्रमुख प्रकार ,लक्षण व उदाहरण निम्न है –
द्रुतविलम्बित

लक्षण – प्रत्येक चरण में 12 वर्ण होते है।
यह वार्णिक सम छंद है।
प्रत्येक चरण में क्रमशः नगण, भगण, भगण व रगण आते है। 
उदाहरण-
दिवस का अवसान समीप था,
गगन था कुछ लोहित हो चला।
तरु शिखा पर थी अब राजती,
कमलिनी कुल वल्लभ की प्रभा।। 

हरिगीतिका 

लक्षण – छंद के प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती है।
यह एक मात्रिक सम छंद है।
प्रत्येक चरण के अन्त में लघु -गुरु आता है।
यति 16 व 12 मात्राओं पर होती है।
उदाहरण –
श्री रामचंद्र कृपालु भजु मन , हरण भव भी दारुणं।
नवकंज लोचन कंज मुख कर ,कंज पद कंजारुणं।
कंदर्प अगणित अमित छवि , नव नील नीरद सुंदरं।
पट पीत मानहु तड़ित रुचि शुचि ,नौमी जनक सुतावर। 

कवित छंद 

लक्षण – इसके प्रत्येक चरण में 31 वर्ण होती है। 
यह वर्णिक सम छंद है।
यति क्रमशः 16 व 15 वर्णो पर होती है कहीं-कहीं क्रमशः 8 ,8 ,8 व 7 वर्णो पर यति होती है। 
प्रत्येक चरण का अंतिम वर्ण गुरु होता है।
उदाहरण –
सहज विलास हास पियकी हुलाज तजि।
दुख के निवास प्रेम पास पारियात है।

दोहा 

लक्षण –इस छंद में विषम चरणों ( प्रथम व तृतीय ) में 13 मात्राएँ तथा सम चरणों
(द्वितीय व चतुर्थ ) में 11 मात्राएँ होती है।
यह मात्रिक अर्द्ध सम छंद है।
यति प्रत्येक चरण के अन्त में होती है।
‘तुक ‘ सम चरणों ( द्वितीय व चतुर्थ ) में मिलती है।
विषम चरणों के अन्त में ‘जगण’ आना वर्जित है तथा सम चरणों के अन्त में लघु वर्ण आना आवश्यक है।
उदाहरण –
रहिमन धागा प्रेम का , मत तोड़ो छिटकाय।
टूटे से फिर न जुड़े ,जुड़े गाँठ पड़ जाये।
दुख में सुमिरन सब करे , सुख में  करे न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे ,दुख काहे को होय। 

सवैया

लक्षण – इसके प्रत्येक चरण में 22 से 26 वर्ण होते है। 
यह एक वार्णिक सम छंद है। 
इसके कई भेद होते है जो निम्न है –
मालती छंद – सात भगण + दो गुरु।
मदिरा छंद –  सात भगण + एक गुरु।
चकोर छंद – सात भगण +एक गुरु + एक लघु।
किरीट छंद – आठ भगण।
सुमुखी छंद – सात भगण +एक लघु+एक गुरु।
दुर्मिल छंद – आठ सगण।
अरसात छंद – सात भगण + एक रगण।
सुंदरी छंद – आठ सगण + एक गुरु।
अरविन्द छंद – आठ सगण + एक लघु।
कुन्दलता छंद – आठ सगण+ दो लघु।
लवंगलता छंद – आठ जगण+ एक लघु। 
उदाहरण – 
” भस्म लगावत शंकर के अहि लोचन आनि परी झरिक।  “( मदिरा सवैया )
“मानुष हौं तो वही रसखानि  , बसौं ब्रज गोकुल गाँव की ग्वारिन। ​”( किरीट सवैया )

सोरठा 

लक्षण – यह दोहे का उल्टा होता है।
यह अर्द्धसम मात्रिक छंद है।
इस छंद में विषम चरणों में 11 -11 मात्राएँ तथा  सम चरणों में 13 -13 मात्राएँ होती है। इसमें तुक पहले व तीसरे चरण में मिलती है।
उदाहरण –
जानि गौरी अनुकूल , सिय हिय हरषु न जाहि कहि।
मंजुल मंगल मूल , वाम अंग फरकन लगे।। 

चौपाई

लक्षण – इसमें प्रत्येक चरण में 16  मात्राएँ होती है। 
यह मात्रिक सम छंद होता है।
यति प्रत्येक चरण के अन्त में होती है।
‘तुक’ पहले चरण की दूसरे से तथा तीसरे की चौथे चरण से मिलती है। 
इसमें चरण के अन्त में ‘जगण’  और ‘तगण’ नहीं आता है।
उदाहरण-
रघुकुल रीती सदा चलि आई। प्राण जाय पर वचन न जाई। 

बरवै 

लक्षण – इस छंद में पहले और तीसरे चरण में 12 -12 मात्राएँ तथा दूसरे तथा चौथे चरण में 7 -7 मात्राएँ होती है।
यह भी एक अर्द्धसम मात्रिक छंद है।
यति प्रत्येक चरण के अन्त में होती है।
इस छंद को ‘ध्रुव’ या ‘कुरंग’ भी कहा जाता है।
इस छंद में दूसरे और चौथे चरण के अन्त में ‘जगण’ अवश्य आता है।
उदाहरण –
वाम अंग शिव शोभित ,शिवा उदार। 
सरद सुवारिद में जनु, तड़ित विहार।। 

रोला 

लक्षण – प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती है।
यह एक मात्रिक छंद है।
यति इसके प्रत्येक चरण में 11 व 13  मात्राओं  पर होती है। दो -दो  चरणों में तुक अवश्य आता है। 
इसके प्रत्येक चरण के अन्त में दो गुरु वर्ण या दो लघु वर्ण होते है। 
उदाहरण –
हे देवी ,यह नियम है ,सृष्टि में सदा अटल है। 
रह सकता वही, सुरक्षित जिसमे बल है।
निर्बल का है नहीं ,जगत में कहीं ठिकाना।
रक्षा साधन उसे प्राप्त हो चाहे नाना।।

उल्लाला 

लक्षण – इसके पहले और तीसरे चरण में 15 -15 मात्राएँ तथा दूसरे और चौथे चरण में 13 -13 मात्राएँ होती है
यह एक अर्द्धसम मात्रिक छंद है। 
इसमें ‘तुक’ दूसरे और चौथे चरण में मिलती है। 
उदाहरण-
हे शरणदायिनी देवी तू, करती सबका त्राण है।
हे मातृभूमि संतान हम, तू जननी तू प्राण है।। 

छप्पय 

लक्षण – इसमें  6 चरण होते है।
यह एक मात्रिक विषम छंद है।
इसे ‘संयुक्त छंद’ भी कहा जाता है ,क्यूंकि इसमें ‘उल्लास’ और ‘रोला’ दो छंदो के लक्षण पाए जाते है 
इसके प्रथम चार चरण ‘रोला’ के व शेष दो चरण ‘उल्लास’ छंद के होते है। 
उदाहरण –
जहाँ स्वतंत्र विचार न बदले मन में मुख में। 
जहाँ न बाधक बने सबल निबलों के सुख में।
सबको जहाँ समान निजोन्नति का अवसर हो।
शांतिदायिनी निशा हर्षसूचक वासर हो।
सब भांति सुशाभित हो जहाँ, समता के सुखकर नियम।
बस  उसी स्वशासित देश में, जागें हे जगदीश हम।। 

टोटक छंद 

लक्षण – इसमें प्रत्येक चरण में 12 वर्ण होते है।
यह एक वार्णिक छंद है।
इसमें प्रत्येक चरण में चार ‘सगण’ पाए जाते है। 
उदाहरण-
निज गौरव का नित ज्ञान रहे,
हम भी कुछ है यह ध्यान रहे।
सब जाय अभी पर मान रहे,
मरणोत्तर गुंजित गान रहे।। 

कुण्डलिया 

लक्षण –इस छंद की विशेषता है की यह छंद जिस शब्द से आरम्भ होता है उसी शब्द से समाप्त होता है।
यह विषम मात्रिक छंद है।
यह भी एक संयुक्त छंद है जो ‘दोहा’ और ‘ रोला’ के संयोग से बनती है।
इसमें प्रथम दो चरणों में  ‘दोहा’ और अंतिम में ‘रोला’ छंद होता है।
इस छंद में दोहे का चौथा चरण ‘रोले’ के प्रथम चरण में दुहराया जाता है।
उदाहरण-
लाठी में गुन बहुत है,सदा रखिये संग।
गहरी नद नाला जहाँ,तहा बचावै अंग।
तहाँ बचावै अंग, झंपट कुत्ता को मारै।
दुश्मन दावागीर होय, ता हु को झारै।
कह गिरिधर कविराय ,सुनहु हे मेरे बाटी।
सब हथियारन छोड़, हाथ में लीजै लाठी।। 

मंदाक्रांता

लक्षण – इस छंद में 17 वर्ण होते है।
यति 4 ,7 व 6 पर होती है।
इसमें क्रमशः मगण,भगण,नगण,दो तगण व अन्त में दो गुरु वर्ण आते है।
उदाहरण –
” जो मैं कोई विहंग उड़ता,देखती व्योम में हूँ।
तो उत्कंठा वश विवश हो, चित में सोचती हूँ।
होते मेरे निबल तन में ,पक्ष जो पक्षियों के।
तो यों ही मैं समुद उड़ती श्याम के पास जाती।। 

शिखरिणी 

लक्षण –इसके प्रत्येक चरण में 17 वर्ण होते है।
यह एक वार्णिक सम छंद है।
इसमें यति रस (6 ) एवं रूद्र (11 ) पर होती है।
इस छंद में क्रमशः यगण,मगण,नगण,सगण,भगण, लघु एवं गुरु वर्ण आते है।
उदाहरण-
” मिली मैं स्वामी से  ,पर कह सकी क्या सभल के 
बहे आंसू होके,सखी  सकल उपालभ्भ गल के।
उन्हें हो आई जो ,निरख मुझको नीरज दया ,
उसी को पीड़ा का , अनुभव मुझे यों रह गया।। ”                                                                            

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