Shant Ras – शांत रस – परिभाषा भेद और उदाहरण | Shant Ras ki Paribhasha
इस आर्टिकल में हम शांत रस किसे कहते हैं, शांत रस के भेद/प्रकार और उनके प्रकारों को उदाहरण के माध्यम से पढ़ेंगे। इस टॉपिक से सभी परीक्षाओं में प्रश्न पूछे जाते है। हम यहां पर शांत रस के सभी भेदों/प्रकार के बारे में सम्पूर्ण जानकारी लेके आए है। Hindi में Shant Ras से संबंधित बहुत सारे प्रश्न प्रतियोगी परीक्षाओं और राज्य एवं केंद्र स्तरीय बोर्ड की सभी परीक्षाओं में यहां से questions पूछे जाते है। Shant ras in hindi grammar शांत रस इन हिंदी के बारे में उदाहरणों सहित इस पोस्ट में सम्पूर्ण जानकारी दी गई है। तो चलिए शुरू करते है –
शांत रस की परिभाषा | Shant Ras ki Paribhasha
शांत रस:- शांत रस का विषय निर्वेद अथवा वैराग्य होता है। संसार की दुखमयता,अनित्यता आदि देखकर कर सांसारिक की वस्तुओं से वैराग्य जागृत होता है। शांत रस की कविता में ऐसे वैराग्य की व्यंजना होते हैं। भक्ति की रचना भी प्राय: शांत रस में ही सम्मिलित की जाती हैं।
शांत रस के अवयव | Shant Ras ke Avayav
स्थाई भाव | निर्वेद |
आलंबन (विभाव) | परमात्मा चिंतन एवं संसार की क्षणभंगुरता। |
उद्दीपन (विभाव) | तीर्थ स्थलों की यात्रा, सत्संग, शास्त्रों का अनुशीलन, आदि। |
अनुभाव | रोमांच, पुलक, अश्रु, आदि। |
संचारी भाव | धृति, हर्ष, स्मृति, मति, विबोध, निर्वेद, आदि। |
शांत रस के अवयव
शांत रस का स्थाई भाव :- निर्वेद ( वैराग्य ) , शम ( शांति )
संचारी भाव :-
- हर्ष
- धृति
- स्मृति
- मति
- निर्वेद
- विबोध
- चिन्ता आदि।
अनुभाव :-
- प्रेमाश्रु
- पूरे शरीर में रोमांच
- पुलक
- अश्रू आदि।
उद्दीपन विभाव :-
- सतसंग
- पवित्र आश्रम
- तीर्थ स्थलों की यात्रा
- शास्त्रों का अनुशीलन आदि।
आलंबन विभाव :- वैराग्य या शांतिजनक वस्तु या परिस्थिति, आत्मा – ज्ञान।
शांत रस के भेद
श्रृंगार रस की भांति शांत रस के भेद-प्रभेद करने की और आचार्यों का ध्यान प्राय: नहीं गया है। सिर्फ ‘रस-कलिका’ में रुद्रभट्ट द्वारा शांत रस के कुल 4 भेद किये गए है –
1. वैराग्य |
2. दोष-विग्रह |
3. सन्तोष |
4. तत्व-साक्षात्कार |
शांत रस के उदाहरण | Shaant Ras ke Udaharan
मन रे तन कागद का पुतला।
लागै बूँद बिनसि जाए छिन में, गरब करे क्या इतना॥
समता लहि सीतल भया, मिटी मोह की ताप।
निसि-वासर सुख निधि लह्मा,अंतर प्रगट्या आंप॥
कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगौ।
श्री रघुनाथ-कृपालु-कृपा तें सन्त सुभाव गहौंगो।
जथालाभ सन्तोष सदा काहू सों कछु न चहौंगो।
परहित-निरत-निरंतर, मन क्रम वचन नेम निबहौंगो।
मन पछितैहै अवसर बीते।
दुरलभ देह पाइ हरिपद भजु, करम वचन भरु हीते
सहसबाहु दस बदन आदि नृप, बचे न काल बलीते॥
‘ तपस्वी! क्यों इतने हो क्लांत,
वेदना का यह कैसा वेग?
आह! तुम कितने अधिक हताश
बताओ यह कैसा उद्वेग?
“सबते होय उदास मन बसै एक ही ठौर।
ताहीसों सम रस कहत केसब कबि सिरमौर।।”
मन रे ! परस हरि के चरण,सुलभ
सीतल कमल कोमल,
त्रिविधा ज्वाला हरण
जब मैं था तब हरि नाहिं अब हरि है मैं नाहिं,
सब अँधियारा मिट गया जब दीपक देख्या माहिं।
देखी मैंने आज जरा
हो जावेगी क्या ऐसी मेरी ही यशोधरा
हाय! मिलेगा मिट्टी में वह वर्ण सुवर्ण खरा
सुख जावेगा मेरा उपवन जो है आज हरा
लम्बा मारग दूरि घर विकट पंथ बहुमार
कहौ संतो क्युँ पाइए दुर्लभ हरि दीदार
भरा था मन में नव उत्साह सीख लूँ ललित कला का ज्ञान
इधर रह गंधर्वों के देश, पिता की हूँ प्यारी संतान।