Vibhats Ras : वीभत्स रस – परिभाषा, भेद और उदाहरण | Vibhats Ras ki Paribhasha
वीभत्स रस : परिभाषा, भेद और उदाहरण | Vibhats Ras in Hindi – इस आर्टिकल में हम वीभत्स रस ( Vibhats Ras), वीभत्स रस किसे कहते कहते हैं, वीभत्स रस की परिभाषा, वीभत्स रस के भेद/प्रकार और उनके प्रकारों को उदाहरण के माध्यम से पढ़ेंगे। इस टॉपिक से सभी परीक्षाओं में प्रश्न पूछे जाते है। हम यहां पर वीभत्स रस ( Vibhats Ras) के सभी भेदों/प्रकार के बारे में सम्पूर्ण जानकारी लेके आए है। Hindi में वीभत्स रस ( Vibhats Ras) से संबंधित बहुत सारे प्रश्न प्रतियोगी परीक्षाओं और राज्य एवं केंद्र स्तरीय बोर्ड की सभी परीक्षाओं में यहां से questions पूछे जाते है। Vibhats ras in hindi grammar वीभत्स रस इन हिंदी के बारे में उदाहरणों सहित इस पोस्ट में सम्पूर्ण जानकारी दी गई है। तो चलिए शुरू करते है –
वीभत्स रस की परिभाषा | Vibhats Ras ki Paribhasha
वीभत्स रस:- वीभत्स रस का विषय जुगुप्सा या ग्लानि होता है। घृणा उत्पन्न करने वाली वस्तुओं को देखकर सुनकर मन में उत्पन्न होने वाले भाव वीभत्स रस को उत्पन्न करता है।
वीभत्स रस के अवयव | Vibhats Ras ke Avayav
स्थाई भाव | जुगुप्सा/घृणा/ग्लानि |
आलंबन (विभाव) | जिसको देखकर जुगुप्ता हो, विलासिता, व्यभिचारी, छुआछूत, धार्मिक पाखंडता, अन्याय, नैतिक पतन, पाप कर्म, घृणास्पद व्यक्ति अथवा वस्तुएं, चर्बी, दुर्गंधमय मांस, रक्त, श्मशान, मांस, रुधिर, फूहड़ आदि। |
उद्दीपन (विभाव) | बिलाना,रक्त, मांस का सड़ना, कीड़े पड़ना, घृणित चेष्टाएं, दुर्गन्ध आना, पशुओं का इन्हें नोंचना-खसोटना, मक्खियों का भिनभिनना आदि। |
अनुभाव | नाक – भौं, नाक को टेढ़ा करना, मुँह बनाना, थूकना, झुकना, मुंह फेरना, आँखें मूँद लेना, मुंह बिगड़ना, नाक आदि। |
संचारी भाव | आवेद, मरण, मूर्छा, ग्लानि, आवेग, शंका, मोह, व्याधि, चिंता, आदि। |
इस कथन के अनुसार बीभत्स रस के तीन भेद होते हैं-
‘बीभत्स: क्षोभज: शुद्ध: उद्वेगी स्यात्तृतीयक:।
विष्ठाकृमिभिरुद्वेगी क्षोभजो रुधिरादिज:’।
- क्षोभज
- शुद्ध
- उद्वेगी
वीभत्स रस के उदाहरण | Vibhats Ras Ke Udaharan
आंतन की तांत बाजी, खाल की मृदंग बाजी।
खोपरी की ताल, पशु पाल के अखारे में।
रिपु-आँतन की कुंकली करि जोगिनी चबात।
पीबहि में पागी मनो जुवति जलेबी खात॥
‘बहु चील्ह नोंचि ले जात तुच,
मोद मठ्यो सबको हियो।
जनु ब्रह्म भोज जिजमान कोउ,
आज भिखारिन कहुँ दियो।।’
इस ओर देखो, रक्त की यह कीच कैसी मच रही!
है पट रही खंडित हुए, बहु रुंड-मुंडों से मही।
कर-पद असंख्य कटे पड़े, शस्त्रादि फैले हैं तथा,
रणस्थली ही मृत्यु का एकत्र प्रकटी हो यथा!
आँखे निकाल उड़ जाते,
क्षण भर उड़ कर आ जाते।
शव जीभ खींचकर कौवे,
चुभला-चभला कर खाते।
भोजन में श्वान लगे,
मुरदे थे भू पर लेटे।
खा माँस चाट लेते थे,
चटनी सैम बहते बहते बेटे।।’
यज्ञ समाप्त हो चुका, तो भी धधक रही थी ज्वाला ।
दारुण दृश्य! रुधिर के छींटे, अस्थिखंड की माला ।
वेदी की निर्मम प्रसन्नता, पशु की कातर वाणी।
मिलकर वातावरण बना था, कोई कुत्सित प्राणी।
सिर पर बैठो काग,
आँखि दोउ खात निकारत।
खींचत जी भहिं स्यार,
अतिहि आनन्द उर धारत।
गिद्ध जाँघ कह,
खोदि-खोदि के मांस।
उचारत स्वान आँगुरिन,
काटि-काटि के खान बिचारत।।’
कितनी सुखमय स्मृतियाँ, अपूर्ण रुचि बनकर मँडराती विकीर्ण,
इन ढेरों में दुख भरी कुरुचि दब रही अभी बन यंत्र जीर्ण।
आती दुलार को हिचकी-सी, सूने कोनों में कसक भरी,
इस सूखे तरु पर मनोवृत्ति, आकाश बेलि-सी रही हरी।
शंकर की दैवी असि लेकर अश्वत्थामा,
जा पहुँचा योद्धा धृष्टद्युम्न के सिरहाने,
बिजली-सा झपट खींचकर शय्या के नीचे,
घुटनों से दाब दिया उसको,
पंजों से गला दबोच लिया;
आँखों के कटोरे से दोनों साबित गोले,
कच्चे आमों की गुठली जैसे उछल गए।
झुकते किसी को थे न जो, नृप-मुकुट रत्नों से जड़े,
वे अब शृगालों के पदों की ठोकरें खाते पड़े।
पेशी समझ माणिक्य यह विहग देखो ले चला.
पड़ भोग की ही भ्रांति में, संसार जाता है छला।
हो मुग्ध गृद्ध किसी के लोचनों को खींचते,
यह देखकर घायल मनुज अपने दृगों को मींचते।
मानो न अब भी वैरियों का मोह पृथ्वी से हटा,
लिपटे हुए उस पर पड़े, दिखला रहे अंतिम छटा।